अमृत की लालसा

भारत एक आध्यात्मिक देश है यहां की प्रत्येक परम्परा की पृष्ठभूमि, आध्यात्मिक सोच और संस्कार से जुड़ी हुई है। कोई भी ऐसा पर्व और त्योहार नहीं है जिसके पीछे कोई आध्यात्मिक घटना अथवा गाथा न हो वैसे भी मनुष्य के एक सामाजिक प्राणी होने के नाते आपस में मिलने जुलने और एक साथ रह कर किसी उद्देश्य विशेष के लिये साधना संघर्ष अथवा प्रयास की प्रवृत्ति रहती है। प्रयाग का कुम्भ मेला जो प्रत्येक १२वे वर्ष गंगा यमुना सरस्वती के पवित्र संगम पर लगता है उसका अपना एक अनूठा इतिहास है। मानव–मन की सबसे कमजोर कड़ी है भय और जब हम भय की चर्चा करते है तो आदमी का सबसे बड़ा डर उसकी अपनी मृत्यु है। मनुष्य ही नहीं मनवेत्तर प्राणी भी मृत्यु से डरते हैं। दुनिया में जितने प्रकार के डर हैं सब मृत्यु के भय से ही निकले है। इसलिये वह अनादिकाल से अमरत्व की खोज में है । दुनिया के तमाम धर्म, संस्कृति, साहित्य और दर्शन सब इस मृत्यु से बचने का ही उपाय अपने ढंग से बताते है। अमरत्व हमारी पैदइशी मांग है, हम मरना नहीं चाहते हमारी जीविशा हमें अनन्त काल तक जीवित रहने का लालच देती है। इसीलिये समय–समय पर ऐसे अनेकों आध्यात्मिक प्रयोग हुये हैं। जिसमें अमरत्व की साधना ही मुख्य रही है, चाहे कोई सावित्री हो जो अपने पति सत्यावान को मृत्यु से बचाने के लिये यमराज तक से संवाद कायम करती हो और चाहे राजा परीक्षित हो जो सर्प दंश (मृत्यु) के भय से त्रस्त होकर जीवन की आशा में शुक्रताल पहुंच जाते है और शुकदेव जैसे महामुनि की कृपा से मृत्यु के भय से मुक्त होकर अमरत्व को प्राप्त होते है। प्रयाग का कुम्भ भी उसी प्रयास से जुड़ी हुयी एक गाथा का हिस्सा है । देव और दानव एक दूसरे को सहन नहीं कर पाते वह एक दूसरे को मिटाने और स्वयं को बचाने की हरसम्भव कोशिश करते है। जब उन्हें पता चलता है कि समुद्र में अमृत है तो वह उसको पाने की लालसा से समुद्र मंथन को उदृत होते हैं मदरांचल को मथानी तथा वासुकी को मथानी की रज्जु बनाकर देवता और दानव समुद्र का मंथन करते है । ये मंथन निरन्तर चलता रहता है संसार रूपी इस सागर का भिन्न प्रकृति के लोगों द्वारा अपने हित में मंथन की इस गति को कायम रखा है। समुद्र के इस मंथन से केवल अमृत् ही नहीं और भी बहुत कुछ निकला है जब मंथन होता है तो जिसके लिये होता है वही नहीं निकलता और भी बहुत कुछ निकला है कोई आवश्यक नहीं कि जो निकले वह हितकर ही हो कई बार कुछ ऐसा भी निकल आता है जो मंथन में प्रवृत्त किसी भी पक्ष को स्वीकार्य नहीं होता जैसे विष । किसी भी मंथन से अमृत भले ही न निकलता हो लेकिन प्रारम्भ में विष जैसी कटुता का सामना तो करना ही पड़ता है। अमृत तो बहुत बाद में निकलता है उसके पहले जो कुछ निकलता है वह सब अनुपयोगी और कटु ही हो ऐसा भी नहीं कौस्तुभ, ऐरावत, लक्ष्मी, धनवन्तरी, उच्यश्रवा, कामधेनू, कल्पवृक्ष आदि भी उसी मंथन से निकले। किसी को कुछ मिला किसी को कुछ लेकिन जब विष कुम्भ निकला तो उसको लेने वाला कोई भी नहीं यहां तक कि भगवान विष्णु जिन्हें लक्ष्मी और कौस्तुभ जैसे मूल्यवान वस्तयें प्राप्त हुई थी। वह भी उस विष कुम्भ को हाथ लगाने की हिम्मत नहीं जुटा सके । अब कौन है जो इस हलाहल को पिये। विष का प्रभाव व्यापक था देव और दानव उसकी उष्मा से निस्तेज और निषक्रिय हो रहे थे तब उसकी तलाश हुयी जो अब तक उस मंथन की भीड़ से अलग कहीं दूर था। मंथन होता ही है विपरीत विचारों संस्कारों और व्यक्तियों के बीच लेकिन द्वन्द से सर्वथा ऊपर रहने वाले शिव का अब सबको स्मरण हुआ। भगवान विष्णु जिनके सानिध्य में यह मंथन चल रहा था उनको भी शिव के अतिरिक्त कोई ऐसा नहीं दिखा जो इस विष का सामना कर सके। देवताओं के बीच एक नागा साधु की तरह जटा–जॅूट मंडित सर्दी–गर्मी से ऊपर भस्म का अंगराग लगाये वह शिव जिनके मन में न राग है न द्वेश न मान है न अपमान। द्वन्द से सर्वथा मुक्त उसके र्निद्वन्द्र निहंग ने उस क्षण के संकट को बड़ी सरलता से दूर कर दिया और वह विष जो सबके लिये मृत्यु का संदेश लेकर आया था पी गये, सारे संसार ने देखा जिसे देवताओं की जमात में जगह न मिली हो और दक्ष जैसे प्रजापति के दरबार से जिसे अपमानित करके उठा दिया गया हो वही आज देवताओं और दानवों के बीच एक अधिदेव के तरह प्रकट हुआ। वह विष जिसकी ज्वाला से सारा संसार त्राही त्राही कर रहा था शिव के कंठ की शोभा बन कर स्थिर हो गया। जो सबको मारने में सक्षम था शंकर ने उसे न केवल पी लिया बल्कि अपने गले का हार बना कर उसे सदैव के लिये अमर बना दिया। न विष मरा और न विष के भय से लोग ही मरे किसी भी मंथन की इससे बेहतर परिणीति क्या हो सकती है और जब देवताओं के बीच एक महादेव ने विष के संकट का समाधान कर दिया तब बारी आयी अमृत की, अमृत का अवतरण होता ही है विष को पचा लेने के बाद । आज जिस अमृत की तलाश में हम करोड़ों की संख्या में इस कड़ाके की सर्दी के बीच कांपते ठिठुरते गंगा की गोद में आते है क्या कोई अमृत है जो हमारे हिस्से में आयेगा। दैत्य छीन नहीं लेंगे जिनके पास बल है शक्ति है सत्ता है आज उन्ही का तो अधिकार है, वक्त के अमृत पर। कौन पूछने जाता है कि वे देवता है कि दानव अमृत कलश को लेकर देव दानवों में जो छीना झपटी शुरू हुई उससे वह अमृत कलश ही संकट में पड़ गया और तब भगवान विष्णु ने मन की उस कमजोरी का लाभ उठाया जो मानव मन के गहरायी में कहीं दबी पड़ी होती है, मोहिनी के रूप में प्रगट हुये मंथन की थकान और अमृत की लालसा ने जब सबको कमजोर बना दिया था तब अचानक एक त्रिपुर सुंदरी को देख दानवों ने उसे अपना मन बहलाने के लिये सामयिक उपाय के रूप में देखा और लग लिये उसके पीछे। मौका पाकर इंद्र पुत्र जयंत ने उस अमृत कलश को अपने कब्जे में लिया और लेकर उड़ चला। जब दानव विश्व सुंदरी के सौंदर्य सुख का लाभ ले रहे थे तब जयंत उस अमृत कलश को मंथन स्थल से कहीं दूर ले जा रहा था। मन को मोहने वाली यह प्रवृत्ति आज भी हमें अपने प्राप्त सत्य से वंचित कर देती है। मन का मोह जब कभी मनमोहन बनता है तब उसके हिस्से में केवल छीना–झपटी और झगड़ा–झंझट ही आता है अमृत तो उससे दूर ही हो जाता है। जयंत ने उस अमृत कुम्भ को भारत जैसी देव भूमि के चार पवित्र स्थानों प्रयाग, हरिद्वार,उज्जैन और नासिक में रखा जिन चार पवित्र नदियों के तट को इस कुम्भ का सान्‍ध्‍िाय मिला वह भले ही अमृत की निकटता को महसूस कर सकी हों लेकिन अमर नहीं रह सकी, सरस्वती कहां गई किसी को पता नहीं क्षिप्रा भी देखते देखते हम सबकी आंखों के सामने से लुप्त हो गयी अब बची केवल गंगा और गोदावरी। मै नहीं जानता कि गोदावरी का भविष्य क्या है लेकिन गंगा की वर्तमान स्थिति को देख कर ऐसा लगता है कि वही भी सरस्वती की राह पर जा रही है. बची केवल यमुना कभी किसी कालिये नाग ने उसे प्रदूषित करने का प्रयास किया था लेकिन यह संसार ऋणी रहेगा भगवान श्री कृष्ण का जिन्होंने कालिये नाग को यमुना से खींच कर बाहर कर दिया वह जहरीला प्रदूषण सदैव के लिये समाप्त हो गया होता यदि श्री कृष्ण ने कालिये को क्षमा न किया होता लेकिन कृष्ण की करूणा का लाभ लेकर उस समय जो कालिया बच गया था अनेकां रूप धारण करके आज उसी यमुना को डस (प्रदूषित) कर रहा है। 14 जनवरी 2013 से 10 मार्च 2013 तक यह 55 वे दिन होंगे जब प्रयाग की धरती पर कैलाश का अवतरण होगा। शिव न केवल अपने विराट को प्रकट करेंगे बल्कि इन्हीं नागाओं चिल्मधारी साधुओं और भस्मालेपित फक्कड़ों के बीच इस जन समुद्र में व्याप्त विष का समन करेंगे और लोक जीवन को भय मुक्त बनाकर और लोकजीवन और अपने ज्ञान भक्ति साधना से भय मुक्त कर अमरत्व की ओर उन्मुख करेंगे। मैं गत 40 वर्षों से प्रयाग के इस अद्भुत पर्व का हिस्सेदार बनता आ रहा हूं लेकिन जो भौतिक बीमारियां पूरे देश में हर गली और सड़क पर दिख जाती है वह दूर–दूर तक उनका मेला क्षेत्र में दर्शन नहीं होता। लाखों की संख्या में कल्पवासी अपने–अपने खुले शिविरों में रहते है वहां उनके सामान की सुरक्षा के लिये न कोई दरवाजा होता है और न ताला कुंजी सुरक्षा कर्मी अखाड़ों महामण्डलेश्वरों और सरकारी अधिकारियों के जानमाल की चिंता भले करते हो लेकिन कल्पवासियों की फिक्र कोई नहीं करता। लगता है उस अमृत कुम्भ से जो छलक कर एक आध बूंद इन पवित्र स्थानों पर गिरा था उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति इन कल्पवासियों को इस अवधि में होती है क्योंकि इन 55 दिनों में कहीं कुछ भी हो सकता है लेकिन प्रयाग के कुम्भ क्षेत्र में चोरी, डकैती, लूट–पाट, हिंसा, हत्या और बलात्कार जैसी घटनायें वहां नहीं होती ऐसा लगता है कि अन्पूर्णा आकर उस धरती पर बैठ गयी। गरीबी और महंगाई की डायन भले ही पूरे देश को खा रही हो लेकिन कुम्भ क्षेत्र में नाना प्रकार के व्यंजनों का प्रसाद हर उस नागरिक के लिये निःशुल्क होता है जो उस क्षेत्र में आता है। मेला क्षेत्र में मैने कभी किसी को बीमार होते नहीं देखा और करोड़ों की उस आबादी में भगदड़ से भले मरे हो लेकिन आज तक बीमारी से मरते किसी को नहीं देखा। धर्म के इस साम्राज्य में राम राज्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। आकाश भी अपने को इस अवसर के आनन्द से अलग नहीं रख पाता, दो चार बूंदे ही सही संक्रान्ति और मौनी अमावस्या को प्रयाग की पवित्र धरती पर अमृत बूंद की तरह अवश्य टपकते है। विश्व का यह सबसे बड़ा मेला है उन सभी आधुनिक परिभाषाओं पर पानी फेर देता है जो बीमारी सुरक्षा और सावधानी को लेकर समय समय पर गढ़े जाते है। देश का बच्चा–बच्चा भौतिक दृष्टि से भले ही प्रयाग न पहुंचे लेकिन हर एक का मन यहां आने को मचलता है। – चलो रे मन गंगा यमुना तीर