आज से 1232 वर्ष पूर्व वैशाख शुक्ल पंचमी 788 को आचार्य शंकर का जन्म केरल के कालड़ी गांव में एक गरीब लम्बोदरी ब्राहमण परिवार के घर में माता आर्यम्बा के गर्भ से हुआ। बालक अपने जन्म काल से ही सामान्य शिशुओं से अलग दिखाई पड़ता था। वह शैशव अवस्था की बालकोचित क्रियाकलाप में भी विलक्षण दिखता था। कहते हैं कि जिस माता पिता के पुत्र के रूप में इस बालक का जन्म हुआ था उनकी कोई संतान नहीं थी। उन्होंने संतान प्राप्ति के लिये बहुत काल तक भगवान शंकर की साधना की इस ब्राहमण दम्पति के तप से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने स्वयं उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया था। इस लिये इस बालक को भगवान शंकर की कृपा प्रसाद के रूप में उन्हीं के अवतार के रूप में देखा गया। माता पिता ने भी नवजात शिशु का नाम शंकर ही रखा शंकर जो बाद में चलकर आचार्य शंकर कहलाये। अपनी दिव्य और अलौकिक प्रतिभा के कारण जन्म से जनसामान्य की दृष्टि में पूज्य और वंदनीय बन गये। तत्कालीन केरल भारतीय वैदिक वांगमय के अध्ययन और अनुशंधन के लिये प्रसिद्ध था ।संस्कृत और वैदिक ग्रथों के अध्ययन का प्रभाव इस बालक पर बचपन से ही पड़ा बिना किसी विद्यालय अथवा शिक्षक के आचार्य शंकर को वैदिक रिचाओं और उपनिशद के मंत्रों का सहज ज्ञान हो चला था। वह अपनी अवस्था के बालकों के बीच खेलने की अपेक्षा विद्वान पण्डितों के समीप बैठकर उनकी आपसी शास्त्रीय चर्चा को सुनने में विशेष रूची लेता था। आये दिन आचर्य शंकर की बाल लीलाओं में अनेक चमत्कारी घटनायें घटने लगीं कभी वह सांपों से खेलते थे तो कभी जंगली जानवरों के बीच निर्भय होकर विचरण किया करते थे ।
माता पिता तथा परिजनों का संस्कार उनको ज्यादा कुछ प्रभावित नही ंकर सका और वह एकांत साधना, ध्यान और ग्रंथों के अध्ययन में विशेष रूची रखते थ।े वृद्धावस्था में मिली इस संतान से माता पिता का लगाव स्वभाविक था। इसलिए उसको कभी वह अकेला नहीं छोड़ते थे। एक दिन वह खेलते खेलते एक सरोवर में स्नान के लिये गये मां आर्यम्बा उनके साथ थी। सरोवर में स्ननान करते समय उनको पानी के अंदर रहने वाले घड़ियाल ने पकड़ लिया और उनको गहरे जल की ओर खीचने लगा। मां ने अपनी इकलौती संतान को इस तरह डूबते देखकर बचाव बचाव करके चीखने लगी। उस समय बचाव के लिये कोई दूसरा तो नहीं आया लेकिन बालक ने स्वयं मां से कहा कि अगर आप मुझे सन्यास की अनुमति दे ंतो मैं मौत के मुंह से मुक्त हो सकता हूं न चाहते हुये मजबूर मां ने बेटे को यह बचन दिया और कहा बेटा मेरे जीवन के अन्तिम क्षण में अगर आप आ सके तो मुझे संतोष होगा। आचार्य शंकर सरोवर से निकल आये और कुछ दिन माता पिता के साथ घर रहकर उनकी सेवा की और बाद मे घर छोड़ दिया बिन किसी परम्परिक शिक्षा के उनको सम्पूर्ण भारतीय दर्शन और वैदिक वांगमय का ज्ञान हो गया था इसलिए अब वह योग्य गुरू की खोज में भारत भ्रमण पर निकल पडे़ विभिन्न तीर्थों और नगरों का भ्रमण करते हुये मध्यप्रदेश के इंदौर के निकट नर्मदा तट पर स्थित ओंकारेश्वर पंहुचे जहां उनको तत्वज्ञ संत आचार्य श्री गोविंद पाद के दर्शन हुये उन्हीं से उन्होंने सन्यास की दीक्षा ली। दीक्षा के उपरान्त गुरू की आज्ञा से ही सनातन धर्म जो उस समय श्रीहीन और वर्चस्व रहित होता जा रहा था। उसके मानने वालों में दम्भ, पाखंड बढ़ गया था। साधना अध्ययन और अभ्यास प्राय समाप्त सा हो गया था ब्राहमण अपने कर्तव्य से विमुख हो गये राजा सत्ता के लिये आपसी संघर्ष में उलझे हुये थे, जनसाधारण धर्म और संस्कृति की मान मर्यादाओं से हटकर अधर्मी और व्यभचारी हो गया था। इस सबको देखते हुये आचार्य शंकर ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और तत्कालीन राजाओं मठाधिपतियों और तथाकथित धमाचार्यों से संवाद कायम किया शास्त्रार्थ में जगह जगह पंडितों के साथ उनके शास्त्रार्थ हुये और अपनी प्रतिभा के कारण प्रायः उनको सम्मान और आदर मिला।
उन्होंने ब्रह्मसूत्र, उपनिषद श्रीमद्भागवत गीता आदि सर्वमान्य ग्रन्थों पर अपना भास्य और टीकये लिखी कई ग्रन्थों और प्रबन्ध काव्यों की स्वतंत्र रचना भी की। विभिन्न अवतारों देवताओं की स्तुतियां और स्त्रोतों की रचना की सरल संस्कृत में सर्ववोधगम्य काव्यों की भी रचना की चरपट मंजरी प्रश्नोत्तरी जैसे छोटे छोटे काव्यों की भी रचना की सौंदर्य लहरी जैसे तंत्र प्रधान काव्यों की भी उन्होंने रचना की। अपनी अल्पआयु में उन्होंने भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक विरासत की रक्षा के लिये देश के चारों कोनो पर चार मठों - ज्योतिष पीठ, शारदा पीठ, गोवर्धन पीठ और श्रंगेरी पीठ इन चार पीठों की स्थापना की। उन्होंने अपने दस प्रमुख शिष्यों के द्वारा सनातन धर्म के प्रचार प्रसार और उसके संबर्धन हेतु दसनाम सन्यास परम्परा को प्रवर्तित किया - गिरि, पुरी वन, पर्वत, सागर, सरस्वती, आश्रम, भारती, अरण्य, तीर्थ दस नामों से सन्यासियों की दस परम्परायें प्रारम्भ हुई इन्ही दसों में से किन्हीं चार को समय समय पर अलग अलग मठों का अधिपति बनाया जो बाद में शंकराचार्य कहलाये शंकराचार्यों की परम्परा को अपनी तेजस्विता और ओजस्विता से इतना समृद्ध किया कि आज भी इन मठों के अधिपतियों का सम्मान जगद्गुरू के रूप में विश्व जानता और मानता है । काशी में उनका विशेष निवास रहा लेकिन अन्य तीर्थों के प्रति भी उनका अनुराग कम नहीं हुआ था। विदेशी आक्रान्ताओं से स्वदेश के धर्म स्थानों की रक्षा के लिये जहां शास्त्रीय विद्वान तैयार किये वही शस्त्रधारी साधु सैनिकों की सेना भी खड़ी की जो बाद में अखाड़े कहलाये इन सैनाओं के साधु विशेष शिक्षित तो नहीं होते थे लेकिन विभिन्न शस्त्र विद्याओं में इन्हे युद्ध का प्रशिक्षण प्राप्त होता था। ये सैनिक अपनी धर्म रक्षा के लिये मरने मारने की लिये हमेशा तत्पर रहते थे। न्युनतम भौतिक आवश्यकताओं में निर्वाह करने वाले यह सैनिक भिक्षा जीवी थे जिसे तत्कालीन राजाओं ने उचित नहीं समझा और इनके निर्वाह के लिये तमाम सम्पत्तियों का दान भी किया यह स्वभाव से फक्कड़ और निर्भिक होने के कारण नागा कहलाये आज भी कुम्भ आदि के विभिन्न अवसरों पर इनकी विशाल सैना दिखाई देती।
सनातन धर्म के प्रर्वतक होने के साथ साथ धार्मिक विसंगतियों और सांस्कृतिक विडमवनाओं के ये हमेशा विरूद्ध रहे फिर भी अदैत के समत्व चिन्तन में कभी कभी संकचो में पड जाते जैसे जब श्रीमद्भगवत की टीका लिख रहे थे तब गीता के एक श्लोक सुनिष्चैव स्वपाकष्चैव पंडिता समदर्शिना की टीका करते समय सोचने लगे की सुनि और स्वपाक में समता कैसे हो सकती है दोनों की जीवन शैली अलग अलग फिर भी उनको समदृष्टि से कैसे देखा जा सकता है यह चिंतन उनको परेशान कर रहा था और एक दिन वह इसी सोच में जब गंगा स्नान को जा रहे थे तो रास्ते में उनको एक चण्डाल जो अपने पुत्रों के साथ आ रहा था मिला इन्होने उसे रास्ते से हटने को कहा इस पर उस चण्डाल ने व्यंग की हंसी हसते हुये कहा कौन हटे कहां से कहां हटे सवत्र तो एक ही तत्व विराजमान है तो आचार्य श्री आप किसे हटने को कह रहे हैं उच्च विचार का यह वाक्य चण्डाल के मुंह से सुनकर वह चैंक पडें़ और गौर से देखा वह चण्डाल नहीं भगवान शंकर ही थे उसी क्षण उनके मन का भ्रम दूर हुआ और सृष्टि के कण कण में समत्व भाव का अनुवभ हुआ।
सम्र्पूण भारत को सामाजिक भौतिक एक सांस्कृति रूप में पिरोने का जो प्रयास 1200 वर्षाें पूर्व उन्हांेने किया वह अभी मौजूद है विश्व के चिन्तक दाशर्निक उनका आदर करते हैं वह और उनका दर्शन सनातन है और आज उनकी पवित्र जयंती पर उनको भूर्षः प्रणाम ।