शराब

लगभग 42 दिनों के बाद लाॅकडाउन के प्रतिबन्धों में कल जब कुछ शिथिलतायें दी गई तो सारा देश दुकानों पर आ गया। ये प्रतिबन्ध तो शिथिल इसलिये किये गये थे कि रमजान के दिनों में लोग अपनी जरूरत की चीजें खरीद सकेंगे। यह भारत सरकार की उदारता ही कही जायेगी कि जिसने नवरात्रों के नौ दिनों और बैसाखी के लोहड़ी जैसे त्योहारों पर लाॅकडाउन के प्रतिबन्धों में किसी प्रकार की छूट नहीं दी थी लेकिन रमजान की अहमियत को महसूस करते हुये जरूरी सामान खरीदने और सीमित क्षेत्रों में आने जाने तथा अपने घरों से दूर छात्रों और मजदूरों की घर वापसी के लिये आवाजाही में जो छूट दी थी उसका परिणाम देखा तो दुख तो नहीं आश्र्चय अवश्य हुआ। कल पूरे देश में शराब के ठेकों पर लम्बीं कतारें देखी गयी। दक्षिणी राज्यों में तो दो-दो किमी लम्बी लाइनंे शराब खरीदने के लिये लगी देखीं गयीं। इन लाइनों में वे लोग भी दिखे जो कल तक राहत पाने के लिये सरकारी और गैर-सरकारी राहत केन्द्रों पर खडें़ थे। बिडम्बना तो ये है कि सरकार ने जिन मजदूरों को इस त्रासदी में आर्थिक सहायता के लिये हजार हजार रूपये दिये थे वह लोग भी शराब की दुकानों पर दिखाई दे रहे थे। इससे ये लगा कि यह देश न तो गरीब है और न राशन तथा खाने पीने की चीजें पहली आवश्यकता है। राशन की दुकाने बीरान पड़ी थी। फल सब्जी और कपडे़ आदि की दुकानों पर कोई भीड़ नहीं थी। यह ये क्रूर मजाक है देश के साथ। आज देश में आम आदमी को जीवन जीने के लिये भोजन और अन्य सामग्री इतनी जरूरी नहीं जितना पीने के लिये शराब। ये वही देश है जहां धार्मिक और आध्यात्मिक संस्थाओं के द्वारा शराब का निषेध किया जाता है। कई प्रांतों की सरकारों ने अपने यहां शराब बन्दी लागू की है। अब इससे साबित होता है कि नशा बन्दी का कानून केबल दिखाने के लिये होते है आम आदमी की जरूरत के लिये नहीं । महाराष्ट्र और दिल्ली में जहां कोरोना जैसी महामारी भैयंकर रूप ग्रहण करती जा रही है वहां लोग अपने जीवन का मोह छोड़ कर शराब जैसी सेहत के लिये खतरनाक वस्तु खरीदने के लिये शराब की दुकानों पर उमड़ पड़े थे। कहां है गरीबी और भुखमरी? अगर वह होती तो लोग चावल गेहंू आटा दाल खरीद रहे होते सब्जी फल और अन्य खाद्य सामग्री के लिये लाइनंे लगी होती लेकिन शराब के लिये देश का यह पागलपन देखकर आष्चर्य होता है। लाॅकडाउन के सभी नियम इन दुकानों पर ध्वस्त होते देखे गये न वहां सोशल डिस्टेंसिग थी न ही लोगों के मुंह पर मास्क। दुकानों पर आने वाले लोगों की जेबों में पैसे थे और वहां से लौटे हुये उनकी हाथों में बोतलंे थी। सरकारों ने किस उद्देश्य से यह उदारता बरती समझ नहीं आ रहा क्योंकि जहां तक मेरी जानकारी है कि ईस्लाम में शराब पीना हराम है फिर रमजान के दिनों में ये लाइने किसकी थी? कौन थे ये खरीददार? सरकारों ने एक व्यक्ति को एक ही बोतल खरीदने की इजाजत दी थी लेकिन ब्लेक में लोग शराब की पेटियां खरीदते दिखाई पडे़। दुनिया भर की सब्सिडी छूट और सस्ते दामों पर दैनिक उपयोग की वस्तुयें बेंच कर सरकार जहां अपने ऊपर देशी विदेश कर्ज का बोझ ले रही वहीं गरीबी के नाम पर शराब की बिक्री देश की तमाम नीतियों के मुंह पर तमाचा है। लोग देख रहें हंै कि ये महामारी कुछ वस्तुओं के सेवन करने वालों पर विशेष प्रभाव डालती है। उनका निषेध भी किया गया था लेकिन कल की बाजार की स्थिति को देखकर नहीं लगता की लाॅकडाउन से इस महामारी पर काबू पाया जा सकेगा। मुझे तो लगता है कि जो क्षेत्र अपनी समझ और सावधानी के कारण महामारी से प्रभावित नहीं थे अथवा कम थे वह भी अब संक्रमण की ओर बढ़ रहे है। लाॅकडाउन के इस अनुशासन में भी यदि लोग खान पान और रहन सहन में संयम का अभ्यास नहीं कर सके और प्रतिबन्धों के शिथिल होते ही मक्खियों की तरह शराब के ठेकों पर भिन भिनाने लगे तो वह ऐसी महामारी से स्वयं अथवा अपने समाज की रक्षा नहीं कर सकेंगे। मुझे बताया गया कि कल केवल एक दिन में उत्तर प्रदेश में 200 करोड़ से अधिक की शराब बिक्री हुयी जबकि कई जगह स्टाक खत्म होने से और लाॅकडाउन के नियमों के कारण दुकाने पूरे समय तक नहीं खुल सकीं। पीने वालों को पीने से रोका नहीं जा सकता लेकिन जो चीज हमारी सामाजिक मान मर्यादा में आदर की दृष्टी से नहीं देखी जाती थी उसके प्रति जनसाधारण में जिस निर्लज्जता के साथ लगाव देखा गया वह देश के सामाजिक पतन का प्रतीक बन गया है। आमतौर से जन जीवन में व्यप्त बुराईयों में शराब भी एक बुराई के रूप में जानी जाती थी। शराबी को लोग इज्जत की नजर से नहीं देखते थे सभ्य समाज में तो लोगों को शराबी कहकर उनकी निंदा भी की जाती थी लेकिन कल का बाजार देखकर मुझे लगा कि ये पूरा देश ही शराबी हो गया और शराब पीना कोई लाज शर्म की बात नहीं रह गयी। महात्मा गांधी कहा करते थे कि शराब पीना पाप नहीं है बल्कि शराब पीने से पाप करने की प्रवृत्ति बढ़ती। आज वह पाप खुल कर सीना तान कर खड़ा दिखाई पड़ रहा। सरकार को राजस्व चाहिये और व्यापारियों को मुनाफा इससे देश समाज का क्या होगा इसकी चिंता किसी को नहीं । इस बुरी आदत से जन सामान्य को बचाने की चेष्टा कितनी भी की गई लेकिन कोई लाभ होता दिखाई नहीं पड़ रहा। जरूरत है तो इस बात की कि जहां सरकार शराब के सेवन पर कड़े प्रतिबन्ध लगाये वहीं धार्मिक और सामाजिक संगठनों को शराब के सेवन की आदत पर नियंत्रण लगाने की पहल करनी चाहिये।