शिक्षा में गुणवत्ता की जिम्मेवारी

कल आई०आई०एम० हल्द्वानी के दीक्षांत समारोह को सम्बोधित करते हुये देश के राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी जी ने देश की उच्च शिक्ष्ा को लेकर गहरी चिंता व्यक्त की उन्होंने छात्रों को ध्यान आकर्षित करते हुये यह दुख व्यक्त किया कि आज विश्व के उन २०० विश्वविद्‍यालयों की सूची में भारत का नाम नहीं है, जो उच्च शिक्ष्ा के क्षेत्र में गुणवत्ता के लिये जाने जाते है। निश्चित ही यह एक अफसोसजनक बात है कारण क्या है यह महामहिम को अच्छी तरह पता है। देश की सरकारों ने शिक्ष्ा में सुधार और गुणवत्ता की चिन्ता कभी नहीं की, आज भी देश में तमाम ऐसे महाविद्‍यालय और विश्वविद्‍यालय है जिनके पास अवस्थापना के सामान्य संसाधन भी उपलब्ध नहीं है, शिक्षण और प्रशिक्षण के लिये अपेक्षित प्रयोगशालायें, पुस्तकालय भवन और दूसरे आधुनिक सुविधाओं का अभाव है। कक्षाओं के नियमित संचालन के लिये अपेक्षित अध्यापकों की भारी कमी हे शासन द्वारा वित्तपोषित महाविद्‍यालयों में जहां अध्यापक की नियुक्ति के लिये राज्य सरकारों ने अलग–अलग आयोगों का गठन किया है। वह काम नहीं कर रहे है अध्यापकों का चयन नहीं हो पा रहा है। दूर जाने की जरूरत नहीं हम अपने उत्तर प्रदेश की बात करें तो शायद ही कोई महाविद्‍यालय होगा जहां स्वीकृत संख्या में अध्यापक उपलब्ध होंगे। प्रायः वह मैनेजमेंट जो स्वयं को जिम्मेदार समझते है अपने सीमित संसाधनों से उस जरूरत को पूरा करने की कोशिश करते है, लेकिन उनके पास इतना कुछ नहीं होता जो मानक के अनुसार अध्यापकों को वेतन दे सकें नतीजा यह है कि यह सभी संस्थायें प्रवेश और परीक्ष्ा तक सीमित रह जाती है। प्रवेश और परीक्षाओं में भी समय बद्धता व पाठ्यक्रमों को पूरा करने के लिये निर्धारित समय नहीं मिल पाता स्ववित्तपोषित शिक्ष्ा संस्थायें केवल धनार्जन तक अपने कर्तव्य को पूर्ण समझती है, यहां तक कि धन के लोभ में वह प्रवेश ओर परीक्षा की निर्धारित मानकों का भी खुला उल्लघंन करते है। सरकारों की उदासीनता को इस तरह समझा जा सकता है, कि आज भी भारत सरकार के बजट में शिक्ष्ा को केवल ६ प्रतिशत तक ही सीमित रखा गया है, जबकि रक्षा आदि मंत्रालयों को बजट का ३६ प्रतिशत तक आवंटन किया जाता है। देश की कुछ सरकारें अपनी सस्ती लोकप्रियता के लिये कुछ ऐसे हथकंडे अपनाती है, जिनसे देश के बजट पर भारी बोझ तो पड़ता है लेकिन उसमें शिक्ष्ा के गुणात्मक सुधार की कोई उम्मीद नहीं जगती जैसे उत्तरप्रेदश की अखिलेश सरकार ने अभी प्रदेश की शिक्ष्ा में गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिये १०वी और १२वी उत्तीर्ण छात्रों को टेबलेट और लैपटाप बांटा है। महिलाओं की शिक्ष्ा में वृद्धि के लिये कन्या धन योजना तथा स्नातक कक्षाओं तक निःशुल्क शिक्ष्ा की घोषणा की। जिस प्रदेश में किताब पढ़ाने के लिये अध्यापक न हो, बैठने के लिये कक्षा भवन न हो, पुस्तकालयों और प्रयोगशालायें तक न हो वहां के बच्चे बिना अध्यापक के कैसे चलायेंगे लैपटाप और कैसे वह टेबलेट पर काम करेंगे। जो धन लैपटाप, टेबलेट और कन्याधन पर खर्च किया जा रहा है यदि वह संसाधनों की कमी को पूरा करने पर खर्च होता और महाविद्‍यालयों में योग्य अध्यापक अच्छी प्रयोगशालयें समृद्ध पुस्तकालयों और हर मौसम में सुरक्षित विद्‍यालय भवन उपलब्ध होते तो शायद स्वाधीनता के ६६ वर्ष बाद आज उच्च शिक्ष्ा के क्षेत्र में गुणवत्ता के लिये चिंता न करनी पड़ती। महामहिम कुछ महीने पहले ही राष्ट्रपति बने उससे पहले तो वह देश के वित्त मंत्री हुआ करते थे। उन्होंने उस समय यदि यह चिंता की होती और शिक्ष्ा संस्थाओं को उचित आर्थिक सहयोग उपलब्ध कराया होता तो देश की प्रतिभाओं ने स्वयं अपनी गुणवत्ता सुधारने में पीछे न रहती। आखिर हमारे यहां के ही छात्र अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया के विश्वविद्‍यालयों में जा कर वहां के शैक्षिक स्तर को उठा रहें है। आज अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के स्तर को उठा सकते है क्या भारत में ऐसा नहीं कर सकते। लेकिन जो साधन, तंत्र और सुरक्षा वहां के अध्यापकों, छात्रों को प्राप्त है उसका दशांस भी हम यहां क्या अध्यापकों और छात्रों को दे पा रहे है, दोष शिक्ष्ा तंत्र से जुड़े लोगों का नहीं है बल्कि उन सरकारों का है जो गरीबी दूर करने की अनेकों योजनायें चलाते है, लेकिन अशिक्ष्ा दूर करने के लिये उन्हें हमेशा विदेशी मदद की जरूरत रहती है। सर्वशिक्षा अभियान को यदि विश्व बैंक की मदद नहीं मिलती तो क्या यह सरकार शिक्ष्ा के अधिकार को लागू करने का साहस जुटा पाती।